आफ़रीन की आवाज़ में फैज़ की नज़्मों से गुलज़ार हुआ मंजुल का लाइव सत्र   'दास्तान- ए-शायरी'

अमिताभ पांडेय, भोपाल

'कुछ इश्क़ किया, कुछ काम किया।
वो लोग बहुत ख़ुश-क़िस्मत थे,
जो इश्क़ को काम समझते थे
या काम से आशिक़ी करते थे।
हम जीते-जी मसरूफ़ रहे
कुछ इश्क़ किया कुछ काम किया।
काम इश्क़ के आड़े आता रहा
और इश्क़ से काम उलझता रहा।
फिर आख़िर तंग आकर हमने
दोनों को अधूरा छोड़ दिया। '

मंजुल पब्लिशिंग हाउस के इंस्टाग्राम पेज पर चल रही लाइव सत्रों की श्रंखला दास्तान- ए-शायरी' की दूसरी कड़ी में सोमवार देर शाम जब आफ़रीन अख़्तर ने इंकलाबी शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की दिल को छूने वाली नज़्मों को अपनी आवाज़ दी, तो पूरा सत्र उसकी ख़ुशबू से गुलज़ार हो उठा। फ़ैज़ की क्रांतिकारी रचनाओं में इंकलाबी और रूमानी रसिक भाव का मेल है। फ़ैज़ के शेरों में जितने रंग दिखाई देते हैं, उनकी निजी ज़िन्दगी के भी उतने ही आयाम हैं। फ़ैज़ ब्रिटिश सेना में कर्नल रहे, पाकिस्तान के दो प्रमुख अख़बारों के संपादक रहे। उन्होंने राजनीति भी की और पाकिस्तानी सरकार में तख्ता पलट के मामले में कुछ साल जेल में भी गुज़ारे।

  लाइव सत्र में आफ़रीन ने फ़ैज़ के उन ख़तों के चुनिंदा अंश भी पढ़े, जो उन्होंने जेल से अपनी पत्नी एलिस के नाम लिखे थे। दोनों के बीच कुल-मिलाकर 135 ख़तों का आदान-प्रदान हुआ था। जज़्बातों से भरे इन ख़तों को 'सलीबें मेरे दरीचे में' शीर्षक से किताब में प्रकाशित किया गया है। एलिस ने फ़ैज़ को जो ख़त लिखे, उनमें शुरू में थोड़ा डर और निराशा झलकती थी, लेकिन ज़िंदादिल फ़ैज़ ने उम्मीदों को बुझने नहीं दिया।

  फै़ज़ उर्दू अदब के उन गिने-चुने शायरों में से हैं, जिनसे पूरी दुनिया  बेपनाह मुहब्बत करती है। लाइव सत्र में दर्शक उनकी नज़्मों में पूरी तरह खो गए। आफ़रीन ने इन्हीं दर्शकों की गुज़ारिश पर एक और नज़्म सुनाई।

 ''चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़
ज़ुल्म की छाँव में दम लेने पर मजबूर हैं हम
इक ज़रा और सितम सह लें तड़प लें रो लें
अपने अज्दाद की मीरास है माज़ूर हैं हम
जिस्म पर क़ैद है जज़्बात पे ज़ंजीरे है
फ़िक्र महबूस है गुफ़्तार पे ताज़ीरें हैं
और अपनी हिम्मत है कि हम फिर भी जिये जाते हैं
ज़िन्दगी क्या किसी मुफ़्लिस की क़बा है
जिस में हर घड़ी दर्द के पैबंद लगे जाते हैं
लेकिन अब ज़ुल्म की मियाद के दिन थोड़े हैं..... ।

  सत्र का समापन फ़ैज़ की एक अन्य मशहूर नज़्म '' फिर कोई आया दिल-ए-ज़ार,नहीं कोई नहींराहरव होगा, कहीं और चला जाएगा, ढल चुकी रात, बिखरने लगा तारों का गुबार, लड़खडाने लगे एवानों में ख्वाबीदा चिराग़.... से हुआ।

Source : अमिताभ पांडेय